Bureaucracy
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| Bureaucracy |
कागज़ों की दुनिया में उलझा है इंसान,
हर मोड़ पर मिलता एक नया फरमान।
कभी दस्तावेज़ पूरे, तो कभी कुछ अधूरे,
फिर भी दौड़ाते, दिनभर पैरों के छाले लिये।
सरकारी दफ्तर में घुसते ही लगता,
जैसे खुद को किसी भूलभुलैया में पाया फंसता।
कभी इधर भेजें, कभी उधर घुमाएं,
फिर भी काम ना करें, बस सवाल उठाएं।
बड़े बाबू की कुर्सी पर अकड़ बैठी है,
आम आदमी की फाइलों में जकड़ बैठी है।
एक हस्ताक्षर के लिए भीख-सी मांगो,
फिर भी सुनवाई हो, यह ना जानो।
हमारी मेहनत से उनकी सैलरी चलती,
फिर भी उनकी नज़रें हम पर ही जलती।
मानो एहसान कर रहे हों हम पर भारी,
जबकि जनता ही इनकी असली अधिकारी।
क्यों हर दस्तावेज़ एक बोझ बन जाता?
क्यों हर दरवाजा रिश्वत मांगता?
क्यों नियम-कानून किताबों में दबे?
क्यों हक के लिए भी धक्के पड़े?
अब वक्त है इस जाल को तोड़ने का,
हर ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने का।
सरकार हमारी, सिस्टम हमारा,
फिर क्यों ये खेल चलता दोबारा?
कभी तो आएगा वो सुनहरा दिन,
जब अधिकारी भी होंगे आम आदमी के संग।
जब फाइलें दौड़ेंगी नहीं, बल्कि काम होंगे,
और जनता के चेहरे पर सिर्फ मुस्कान होंगे।



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